Monday, 3 December 2018

संतमत सिद्धान्त

संतमत सिद्धान्त

जो परम तत्व आदि अंत रहित, असीम अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे हैं, उसे ही सर्वेश्वर सर्वाधार मनना चाहिये।
तथा अपरा और परा दोनो प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण पर अनादि अनंत स्वरूपी अपरम्पार शक्तियुक्त देशकालतीत शब्दातीत नामरूपतित अद्वितीय मन बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति मंडल एक महान यंत्र की नाई परिचालित होता रहता हैं, जो ना व्यक्ति हैं और ना व्यक्त हैं , जो मायिक विस्तृतत्व विहीन हैं, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता हैं, जो परम सनातन परम पुरातन एवम सर्वप्रथम से विधमान हैं, संतमत में उसे ही परम अध्यात्म पद वा परम आध्यात्मस्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर मानते हैं।
जीवात्म सर्वेश्वर का अभिन्न अंग हैं ,
प्रकृति आदि अंत सहित हैं और सृजित हैं।
मयबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता हैं, इस प्रकार रहना जीव के सब दुखो का कारण हैं, इससे छुटकारा पाने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्र उपाय हैं,
मानस जप मानस ध्यान दृष्टि साधना और सूरत शब्द योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अंधकार, प्रकाश, और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी हैं।
झूट बोलना , नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी अर्थात जीवों को दुःख देना वा मतस्य मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी इन पांचों महापापो से मनुष्य को अलग रहनी चाहिए।
एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वाश पूर्ण भरोषा तथा अपने अंदर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा ,सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास ,इन पांचों को मोक्ष का कारण समझना चाहिए।

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